क्रीड़ा - बंधु मातु के प्रकाशवान अम्बक से।
अनुजों के ताप के समूल नाशकारी हो॥
नग्न- रूप- देव, कवि- वाणी से परे हो तुम।
तात तुम पालक हो, जगत- संहारी हो।।
भक्त- हित- काज, करने में तीव्रता- अतीव।
दलितों के हेतु, दानवीर- त्रिपुरारी हो।।
क्रोध की कठोरता हो कुटिल- कुजन हेतु।
मृदुल- सुजन हेतु शांति -सुखकारी हो॥
लपटे फनीन्द्रों के फनो की मणियों की दुति।
फैलती तो सकल दिशाएं पीत होती है।।
लगता है जैसे काम- अरि ने दिशा- त्रिया के।
आनन पे प्रेम वस केशर ही पोती है॥
ऐसे मद- अंध- गज- असुर के चर्म धारी।
देवता को देखि देह, भीति- भय खोती है॥
भोले शिव- शंकर जय भोले शिव- शंकर की।
गूँज हर ओर, हर ओर गूँज होती है॥
दिव्य- भाल- लोचन में धधक रही जो ज्वाल।
काल बन मदन को राख में मिलाया है ॥
ब्रम्हादिक- देवराज करते प्रणाम जिन्हें।
जिनके ललाट चन्द्र -रश्मियों की काया है॥
जिनकी जटाओं में निवास मातु -गंग करें।
भंग- संग -अम्बकों ने रक्त- रंग पाया है ॥
धर्म- अर्थ -काम -मोक्छ, सकल फलों का, ।
दे दो दान, मान- साथ भोले, तुझको बुलाया है ॥
इन्द्र अदि देवों के मुकुट के प्रसून माल ।
से गिरा पराग -पुष्प- धूसित- चरण है ॥
नागराज वासुकी लपेटे जिनका हैं जूट ।
जिनके ललाट मिली बिधु को शरण है॥
एक तो अमावस की मध्य रात्रि कालिमा हो।
उसपे भी छाये सब ओर घिरे घन हैं॥
उससे भी काली- कालिमा दिखा रही है ग्रीव।
शिव की, करे जो जग -तम का हरण है॥
नील- कंज- कान्ति, मात करती सुनील- कंठ।
कामदेव- मर्दक, तुम्हारी जयकार हो॥
दच्छ -यग्य -नासक, गजासुर -विनासक हो।
देवाताधिपति -देव, जगती का सार हो॥
मंगल- मुहूर्तकारी, चौसठ -कला से युक्त।
तांडव का नृत्य, मंद- डमरू -पुकार हो॥
बाघ -चर्म -धारी और विजन -बिहारी -शिव।
कर- बध्य- याचना तुम्हारी जयकार हो।।
पाहन में पुष्प में तुम्हारी रूप छवि।
सर्प मोतियों के माल देखूं तो भी तेरा ध्यान हो॥
रत्न बहुमूल्य हों या सैकत -सरित- कूल।
सबमें उपासना तुम्हारी भगवान हो॥
त्रण हो या नेत्र -कंज- प्रमदा -सुभग -अंग।
रंक- भूप सबमें तुम्हारा दिव्य ज्ञान हो॥
मुख से बचन जो भी निकले तुम्हारा नाम।
लोचन जिधर देखें आपका ही ध्यान हो।।
वासनाओं को समूल नस्ट कर कब देव।
सुचि सुरसरि तट कुंज में रहूँगा मैं॥
कब शिव सम्मुख ले अंजुली में छीर खड़ी।
नारियों के व्यूह मध्य गौरी को लाखूंगा मैं॥
किस काल भाग्यवस शैलजा को प्राप्त हुए।
शंकर से श्रेष्ठ पति प्रभु को भजूंगा मैं ॥
दे दो बरदान भोले रंजन की लेखनी को।
तेरा बस तेरा पद गान ही करूंगा मैं॥
शुचि- जूट- कानन से पावन- प्रवेग- नीर।
नील- कंठ में विशाल सर्प- माल भा रही ॥
डम डम डम डम डमरू की ध्वनि तेज।
तांडव की तीव्र नृत्य- गति हर्षा रही।।
तेज -विकराल लाल -लोचन हैं शंकर के।
प्रांगन -ललाट -अग्नि- मदन जला रही॥
देवी -पार्वती- कुचाग्र -चित्र रचाने में श्रेष्ठ।
भोले शिव रूप छवि अंतर समां रही ॥
रंजन कृत शिव तांडवक् नित्य पाठ कर जोय।
तन मन विभव कलेश सब मिटे प्रफुल्लित होय ॥
शिव तांडवक् के रचनाकार
महंत रंजन दास
महंत ज्योतिर्लिंगा शिवमठ
ब्रिन्दावन योजना संख्या ३
सेक्टर १२, निकट बड़ी पानी की टंकी
बरौली लखनऊ